उपन्यास यही तक नहीं ठहरता है। मुझे अपने बिस्तर की सिलवटों पर प्रोमिला की तेज लहरों के साथ छोड़कर बहा ले जाता है। वहीं कहीं साहिल पर मुझे उसकी अपनी कहानी सुनने को मिल जाती है। नानी, कमाठीपुरा की कस्बी (निचले दर्जे की वेश्या) थी, तवायफ नहीं। दोनों में अंतर होता है । एक राजा थे इटौंजा के.... मुझे लगा, सात सुरों के शोर में साजिंदों के साथ ठुमरी और दादरा की गायकी गूंज उठी हो। प्रोमिला मेरे होंठ चूम लेती है। मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए मालिक! बस मेरे पीछे खड़े होकर मेरी रफ्तार पर नज़र जमाए रखिएगा। मैं आपसे फिर कभी कुछ नहीं मांगूंगी...। डालीं गुरुंग ने क्या मांगा था। बस, सिक्किम की पहाड़ियों में गुम अपने पिता का पता और मां के हत्यारों की निशानदेही... लेकिन नरेंद्र को क्या मिला? यदि ऐसा है तो अंग्रेज बहादुर के डेढ़ सौ वर्षो पुराने भूतिया बंगले में इतने ही पुराने समय के पिंजर क्यों बरामद होते हैं, ये पिंजर किसके हैं? करमाकर खानदान के कितने राज उसने अपने सीने में दबा रखे हैं। वे दर्द भी जो नन्ही उम्र की उड़ान के समय बाज के पंजे जिस्म को फाड़ते हुए पहुंचाते हैं । मांस तक चीर देने का दर्द । इस पीड़ा को वही महसूस कर सकता है जिसने अपने शरीर के भाले की तरह नाखूनों को गड़ते देखा और महसूस किया है। यह नन्ही उड़ान के सपने हैं बीबी, ये सपने ऐसे ही होवे हैं, पर सदियों की परंपराओं को हम कैसे मिटा देंवे। हम नचनियों को अपने मरद के रूप में एक ना एक दिन किसी न किसी रसिक कांचा के हाथों सौंपना ही पड़े हैं। वही जीवन के अंत को मोक्ष दिलावे के वास्ते अपनी नाचनी का मुर्दा देह चील- कव्वों, गिद्धों और सियारों के निपटान के लिए सौंप देवें है , यही म्हारे समाज की परंपरा है ।
Ranjan Jaidi
रंजन ज़ैदी पिता का नाम- डॉ. ए.ए. ज़ैदी, जन्म - सीतापुर उत्तर प्रदेश, शिक्षा- एम.ए. हिंदी, पी.एच.डी., अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ उत्तर प्रदेश,